Saturday, 29 August 2020

Leena Chandavarkar : 29-Agust 1950


aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 29 अगस्त 2019,
  • (अपडेटेड 29 अगस्त 2019, 7:39 AM IST)
बीते जमाने की एक्ट्रेस लीना चंदावरकर का जन्म मुंबई में एक आर्मी परिवार में हुआ. उन्होंने अपनी अदाकारी से दर्शकों के दिल में दशकों तक राज किया. लीना ने अपना करियर मन का मीत फिल्म से शुरू किया था. इस फिल्म को सुनील दत्त ने प्रोड्यूस किया था. बताया जाता है इस फिल्म के लिए सुनील दत्त की पत्नी नरगिस ने उन्हें एक एक्ट्रेस के रुप में तैयार किया था. इसके अलावा उन्होंने मेहबूब की मेहंदी, हमजोली, प्रीतम, रखवाला जैसी बेहतरीन फिल्मों में काम किया. लीना महज 25 साल की उम्र में विधवा हो गई थीं. इसके बाद उन्होंने अपने से 20 साल बड़े किशोर कुमार से शादी कर ली. 29 अगस्त को लीना का जन्मदिन है. आइए लीना की निजी जिंदगी के बारे में जानें...

1975 में लीना की शादी राजनैतिक फैमिली से ताल्लुक रखने वाले सिद्धार्थ बंडोडकर से हुई थी. लेकिन किसे पता था कि एक घटना की वजह से उनकी बसी बसाई जिंदगी बंजर हो जाएगी. उनके पति को गलती से गोली लग गई थी. इसका कुछ समय तक इलाज चला लेकिन वह मौत से जीत नहीं पाए और उनका निधन हो गया.

पति के इस तरह से चले जाने के बाद लीना डिप्रेशन में चली गई थीं. उन्होंने अपने करीबियों से मिलना जुलना बंद कर दिया था. लीना की ऐसी हालत देख उनके पिता उन्हें घर ले गए. कुछ समय बाद उन्होंने फैसला लिया कि वह फिर से इंडस्ट्री में वापसी करेंगी. उन्होंने दोबारा फिल्मों में काम करना शुरू किया. इसी बीच उनकी मुलाकात किशोर कुमार से हुई. दोनों ने मिलना जुलना शुरू किया. दोनों की प्रेम कहानी दोस्ती से शुरू होकर शादी पर खत्म हुई.

इस बीच लीना को परिवार की आपत्ति का भी सामना करना पड़ा. जब लीना ने अपने पिता को किशोर के बारे में बताया तो वह नाराज हो गए. उन्होंने दोनों के रिश्ते का विरोध किया. लीना के पिता नहीं चाहते थे कि वह एक ऐसे इंसान से शादी करें जो तीन बार शादी कर चुका हो. लेकिन लीना ने परिवारवालों के खिलाफ जाकर किशोर कुमार से शादी. इन दिनों वह सौतेले बेटे सिंगर अमित कुमार, बेटे सुमित कुमार के साथ मुंबई में रहती हैं.


रिया ने कुछ भी झूठ नही बोला : आवेश तिवारी ------ पवन करन / संतोष भारती





28-08-2020 
आज एक लड़के से बेहद प्यार करने वाली एक लड़की ने बिकी हुई मीडिया, बेशर्म राजनीति  और पुरुषवादी, सवर्णवादी समाज के  ताने बाने की बघिया उधेड़ कर रख दी। आज भारत देखेगा कि अर्नब के चेहरे पर कालिख पोत कर घूमता है कि नही? आज भारत देखेगा कि बिहार को नरक बना देने वाले  नेता अपना चेहरा पीटते हैं कि नही? आज भारत देखेगा कि देश के पुरुष, अपनी मां, अपनी बहन, अपनी पत्नी, अपनी प्रेमिका से आंख मिला पाते हैं या नही?
राजदीप ने आज जो करके दिखाया है वो उन्हें सबसे अलग कतार में खड़ा कर देता है। भुखमरी बेचारगी और एक अंतहीन होते जा रहे रोग से जूझते देश मे एक प्रेमी जोड़े की निजता को तार तार कर एक सरकार पर निशाना बना रही मीडिया को इस जैसे तमाचे की ही जरूरत थी। निस्संदेह आज का थप्पड़ अर्नब और अंजना को हमेशा याद रहेगा। इस इंटरव्यू को देखनेके बाद जो कोई रिया के खिलाफ बोले तो सोचो उसके भीतर कौन छुपकर बैठा है।
मुमकिन है कि कुछ लोगों को रिया के आंसू झूठे लग रहे होंगे। कुछ लोग कहेंगे झूठ बोल रही थी रिया। दरअसल ऐसा कहने वाले वो स्त्री पुरूष हैं जिन्होंने कुछ भी किया हो कम से कम प्रेम तो नही किया होगा। बतौर जर्नलिस्ट मैं दावे के साथ कह सकता हूँ रिया ने कुछ भी झूठ नही बोला। पाले हुए धूर्त जमात के पत्रकारों, बॉलीवुड के कलाकारों  ने रिया के नाम का इस्तेमाल करके बिहार चुनाव में मुद्दों को भटकाने की तो  कोशिश की ही और कोरोना के प्रबंधन में अपनी असफलता पर भी पर्दा डालने की कोशिश की है। 
अब बारी सुशांत के परिवार के साथ साथ अर्नब गोस्वामी और कंगना रनौत जैसों की है। सुशांत की बहनों को जवाब देना होगा सुशांत ने सुसाइड क्यों किया? अर्नब को बताना होगा कि ईडी से उसे रिया के पर्सनल चैट कैसे मिले? सुशांत के पापा बातायें 5 साल तकः बेटे से क्यों नही मिले? कंगना बताए इस मामले में प्रोपोगंडा फैलाने के लिए उसे क्या तोहफा मिला?
आवेश तिवारी

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लाउत्सु पर बोलते ओशो बताते हैं कि कैसे एक बार उन्हें न्यायाधीश बनाया गया। एक चोरी का मामला आया, चोर रंगे हाथों पकड़ा गया था, लेकिन लाउत्सु ने जितनी सजा चोर को दी उतनी ही उस धनिक को भी जिस के यहां चोरी हुई। बड़ा अजीब लगा, लाउत्सु बोला कि किसी को चोरी करनी पड़ती है क्योंकि किसी ने जरूरत से अधिक जमा कर लिया है। ऐसे जुर्म में दोनों बराबर भागीदार हैं।
भारत का संविधान कहता है कि 99 दोषी बच जाये कोई बात नहीं, कोई निर्दोष नहीं फसना चाहिए। जब तक आरोप सिद्ध नहीं होता, व्यक्ति को निर्दोषी ही माना जाये, अपराधी नहीं। न्याय व्यवस्था, पुलिस, जांच एंजेसियों का अपना काम है, लेकिन खबरिया चैनल ने अपनी ग्राहकी बढ़ाने के लिए जितना अमानवीय काम लगातार किया है, उतना कोई दूसरा अपराध नहीं दिखाई देता है। आरूषी कांड में रात-दिन जो कुछ दिखाया गया, उस छोटी-सी बच्ची का जैसे चीरणहरण हुआ, उसके जिंदा माता-पिता को जिंदा लाश बना दिया गया...सिर्फ टी आर पी के लिए? 
हमारे देश में सेक्स बिकता है, जहां भी सेक्स के आसपास की कोई खबर है बस...याद है शीना बोरा, इंद्राणी मामला, सेक्स, स्त्री, मर्डर, चर्चित लोग...ये मसाले हैं टी आर पी में उछाल के गरमा-गरम मामले। लेकिन इस में इंसानियत पूरी तरह से नदारद, किसी को नहीं पड़ी कि एक इंसान की जिंदगी को यूं रोज-रोज तार-तार करना कितना बड़ा गुनाह है।
अब इन दिनों सुशांत का मामला चल रहा है। क्या कोई यह कह सकता है कि इन टी वी चैनल्स को सच में उसकी मृत्यु को लेकर कोई हमदर्दी हैं? राजनीति है, राजनीति फायदे का गणित है, सरकार को गिराने की जोड़-तोड़ है, किसी को बदनाम करने की कुटील चाले हैं, कोई भी कुछ भी बोल रहा है, किसी भी तरह का निम्न से निम्न आरोप लगाने में देर नहीं कर रहा...किसी को नहीं पड़ी कि जिस पर आरोप लगा रहे हो, उसकी जिंदगी का क्या होगा? 
मेरे देखे बात इतनी-सी है कि सुशांत को मानसिक परेशानी थी, यह आम बात है, भावुक, हृदय तल से जीने वाले, संवेदनशील, भोले, निर्दोष, सृजनकार अकसर मानसिक परेशानियों से गुजरते हैं...ये दुनिया या बहुसंख्यक या समाज की व्यवस्था ऐसे लोगों को असहनीय हो जाती है। वे अनफिट हो जाते हैं। एक विदेशी युवती के प्रश्न पर ओशो ने बताया कि संवेदनशील लोगों को आत्महत्या करनी पड़ती है क्योंकि उनका दम घुटता है...।
सुशांत अपनी मां से बहुत जुड़े हुए थे। भारत में यह आम बात है, मां के जाने के बाद अचेतन मन की कई पर्तें ऊपर आ जाती हैं। मैं स्वयं इस तरह के दौर से गुजरा हूं। कह सकता हूं कि मरते-मरते बचा। मैं भी ऐलोपैथी के चक्कर में पड़ा, लेकिन बहुत जल्दी ही मुझे लगा कि बीमारी को दबाने से काम नहीं चलेगा, उसे बाहर निकालना होगा तब सक्रिय ध्यान, मिस्टिक रोज, जिबरीश और अन्य इंटेस प्रयोग किये और मैं सामान्य हो गया...ऐलोपैथी की दवाइयां मामले को जटिल कर देती हैं।
रिया चक्रवर्ती एक सामान्य युवती है जिसे संयोग से किसी टी वी कार्यक्रम में सफलता मिली, फिर वह आगे बढ़ने लगी, लेकिन पक्का वह एक भोली युवती है, मासूम। सुशांत से उसका रिश्ता बन गया...किसी न किसी तल पर दोनों एक जैसे थे, बात बन गई, लेकिन सुशंात की मानसिक परेशानियां थीं...अब अंकिता लोखंड़े सालों पहले के वीडियो या जानकरियां लेकर आ रही है...हो सकता है कि उन दिनों में सुशांत की बीमारी ऊपर नहीं आई हो। नयी-नयी सफलता मिली थी, प्रसिद्धी मिली थी, स्टारडम मिली थी, प्रेम हुआ था...इसमें मानसिक परेशानियां दब जाती है...लेकिन समय के साथ सारी चकाचौंध फीकी पड़ने लगी, जीवन की कड़वी सच्चाइयां सामने आने लगी, फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश तो मिल गया लेकिन वहां जमे रहने में दिक्कतें आने लगी...महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगी...अनेक बातें हैं...ऐसे में मन हताश होने लगा, उदास होने लगा, गुस्सा आने लगा, अवसाद फिर सिर उठाने लगा...और वही ऐलोपैथी की दवाइयां...
रिया ने अपनी तरफ से जो कुछ भी कर सकती थी, किया, प्रेम था, वह भावुक युवती है, उसके अपने सपने थे, उसकी अपनी उड़ान थी, प्रेमी था, उसकी सफलता का मजा था, लेकिन उसकी कठिनाइयों के अवरोध भी...हर रिश्ता शुरू बड़े इंद्रधनुषी रंग लेकर आता है, लेकिन समय के साथ रंग उड़ने लगते हैं...सफलताएं-असफलताएं, मानसिक रोग, गुस्से, शिकायतें, नकारात्मकता, खीज, दुख...ये किसी भी रिश्ते में जहर घोल देते हैं...दोनों को लगता है कि दूसरा मेरे दुखों के लिए जिम्मेदार है...तब तानाकशी, दोष मढ़ना, नीचा दिखाना, लड़ाई-झगड़े...बीच-बीच में कुछ अच्छे पल भी विशेषकर शारीरिक रिश्ते...उसमें प्रकृति अपना काम करती है...लेकिन सच बहुत अलग हो जाता है।
मुझे सुशांत-रिया का रिश्ता बेहद आम रिश्तों की तरह ही लगा, अधिकांश रिश्ते ऐसी ही पगडंडियों से गुजरते हैं औैर समय के साथ नई राहें निकल आती है...सुशांत का मां से जैसा लगाव था, उसे हर प्रेमिका में मां दिखती होगी, वह चाहता होगा कि उसकी प्रेमिका उसे मां की तरह संभाले...सामान्यतया लड़कियां ऐसा कर भी लेती हैं, लेकिन हर समय मां बने रहना तो संभव नहीं होता, वे प्रेमिका भी होती हैं...जब उनका वह पक्ष संतुष्ट नहीं होता तो दम घुटने लगता है...उन्हें एक मजबूत मर्द साथी की जरूरत होती है न कि कमजोर बच्चा जिसे रोज लोरी सुनानी पड़े...प्यार के होते लोरी सुना देती है, लेकिन कौन युवती होगी जो एक बच्चे को गोदी में लेकर बैठी रहे, लोरी ही सुनाती रहे? दिक्कतें रिश्तों में आती हैं...हर रिश्ता मधुर शुरू होता है, कडवाहट के साथ समाप्त होता है...!
बात बस इतनी-सी है...आत्महत्या, राजनीति, टी आर पी...रिया चक्रवर्ती माफ करना बेटी, न चाहकर भी तुम इस जहर कुंड में गिर चुकी हो या तुम्हें धकेला गया है...तुम्हारा इंटरव्यू सुना, तुम्हारे लिए मन उदास हो गया, रात नींद आना मुश्किल हो गई...तुम्हारी वेदना का कुछ अंश मेरे जैहन में घुलता चला गया...माफ करना बेटी।
हां, जब तुम्हें पूछा गया कि सुशांत से प्रेम करने का कोई पछतावा होता है--तुम तपाक से बोली, नहीं, कतई नहीं। सच कहूं उस समय लगा तुम्हारे पैर छू लूं। जो होगा, होगा, तुम्हारे प्रेम को नमन करता हूं।
निवेदन अगर अच्छा लगा हो तो शेयर करें... रिया की जिंदगी का सवाल है
इंसानियत के नाते जो कुछ किया जा सके
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Thursday, 27 August 2020

45 वीं पुण्यतिथि पर मुकेश जी का स्मरण ------ लता मंगेशकर / कुलदीप कुमार













 


आजा रे अब मेरा दिल पुकारा...!
'छोड़ गये बालम, मुझे हाय अकेला छोड़ गये' और 'किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार' जैसे गीतों से श्वेत-श्याम पटल पर दर्द को रंग और संवेदना को सहारा देने वालें गायक मुकेश ने हर तरह के गीत गाएं हैं। लेकिन उन्हें उनके दर्द भरे गीतों के लिए विशेषरूप से याद किया जाता है। उनकी कशिश भरी आवाज़ और दर्द भरा अंदाज़ उनको उस दौर के गायकों में एक अलग पंक्ति में खड़ा करता है।
मुकेश का जन्म 22 जुलाई 1923 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता एक अभियंता थें। उनकी 10 संतान थीं और मुकेश उनकी छटवीं संतान। जब मुकेश छोटें थें तब उनकी बहन को संगीत की शिक्षा देने एक शिक्षक आतें थें। मुकेश उनको छिपकर सुनते थें। धीरे-धीरे वह संगीत की बारीकियों से परिचित हुयें और गायिकी की तरफ उनका रुझान होने लगा। हाईस्कूल पास करने के बाद वह पीडब्लूडी में काम करने लगे। 
उसी समय उनके दूर के रिश्तेदार मोतीलाल उनसे मिलें और उनसे प्रभावित होकर उन्हें मुम्बई ले आएं। यहीं से मुकेश के फ़िल्मी कैरियर की शुरुवात हुई। बतौर अभिनेता और गायक उनकी पहली फ़िल्म 1941 में आयी 'निर्दोष' थी। उनके कैरियर का पहला गीत था 'दिल ही बुझ गया होता' इसके अलावा बतौर अभिनेता उन्होंने 'माशुका, आह, अनुराग और दुल्हन' फ़िल्म में काम किया। यह सभी फिल्में असफल रही।
मुकेश के आदर्श गायक कुंदन लाल सहगल थें। जब मुकेश फिल्मी दुनिया में नहीं आएं थे तब वह अपने दोस्तों को सहगल के गाये गाने उनकी आवाज़ में कॉपी करके सुनाते थें। इसका प्रभाव उनके गायिकी पर भी पड़ा। एक वह भी दौर आया जब लोग आपस में शर्त लगाने लगे कि 'यह गीत सहगल ने गाया है या मुकेश ने।'  एक बार सहगल भी मुकेश को सुनकर अचंभे में पड़ गये थें। 
अपने 40 साल लम्बे फ़िल्मी कैरियर में मुकेश जी ने लगभग 200 फिल्मों के लिए गीत गाएं। 40 के दशक के उन्होंने अधिकतर गीत दिलीप कुमार, 50 के दशक में वह राजकपूर और 60 के दशक में राजेन्द्र कुमार और मनोज कुमार के लिए कई यादगार गीत गायें हैं। 50 का दशक उनके कैरियर और हिंदी सिनेमा के लिए महत्वपूर्ण दशक है। 
50 के दशक के दौरान वो राजकपूर की आवाज़ बने और बॉलीवुड की सबसे सफल तिकड़ी शैलेन्द्र-मुकेश-शंकर जयकिशन एक साथ काम करने शुरू किये। इस तिकड़ी ने आम भारतीय जनमानस में फ़िल्मी गीतों को काफी लोकप्रियता दिलाई। 
हसरत जयपुरी के लिखे कई बेहतरीन गीतों को भी मुकेश ने आवाज़ दी। राजकपूर के साथ उन्होंने 'अंदाज़, आवारा, श्री 420, छलिया, अनाड़ी, संगम, जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर, तीसरी कसम' जैसी म्यूजिकल हिट्स फिल्मों में काम किया। 1951 में आयी फ़िल्म 'मल्हार' और 1956 में आयी फ़िल्म 'अनुराग' के निर्माता मुकेश थें। यह दोनों फ़िल्में भी असफल रही थीं। 
मुकेश सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का फ़िल्म फेयर अवार्ड पाने वालें पहले गायक हैं। उन्होंने अपने कैरियर में 4 बार फ़िल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त किया। उनका अंतिम फ़िल्म फेयर उनकी मृत्यु के बाद मिला। उन्हें फ़िल्म फेयर पुरस्कार 'सब कुछ सीखा हमने (अनाड़ी 1959), सबसे बड़ा नादान वहीँ (पहचान 1970), जय बोलो बेईमान की (बेईमान 1972) और कभी कभी मेरे दिल में (कभी कभी 1976)' के लिए मिला। उन्हें साल 1974 में आयी फ़िल्म 'रजनीगंधा' के गीत 'कई बार यूँ ही देखा है' के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ। 
मुकेश 27 अगस्त 1976 को अमेरिका में एक कार्यक्रम में ' एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल' गीत गा रहें थे तभी उनको दिल का दौरा पड़ा और उनकी उसी समय मौत हो गयी। उनके मृत्यु का समाचार सुनकर राजकपूर ने कहा था 'आज मेरी आवाज़ और आत्मा दोनों चली गयी।'
महान पार्श्वगायक को पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !
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