Monday 31 August 2015

The dirty evening...!!! WINNING SHORT FILM (2014 ) --- IPTA के प्रदीप घोष द्वारा उत्कृष्ट संदेश वाहक फिल्म





इप्टा लखनऊ के वरिष्ठ कलाकार प्रदीप घोष साहब द्वारा निर्देशित फिल्म-' द डरटी इवनिंग ' को PCISFF पिंक सिटी इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उत्कृष्ट संदेश वाहक फिल्म -"best message given film एवार्ड प्रदान किया गया है। 
फिल्म में इप्टा कलाकारों के अतिरिक्त किसान नेता राम प्रताप त्रिपाठी व खेत मजदूर यूनियन नेता फूल चंद यादव द्वारा भी अतिथि भूमिकाओं का निर्वहन किया गया है। न्यूज़ रीडर के रूप में किरण सिंह व पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में उदयवीर सिंह की भूमिकाएँ सराहनीय हैं। वरिष्ठ इप्टा कलाकार मुख्तार साहब के सुपुत्र ने भी फिल्म के  प्रारम्भ में बाल कलाकार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। 
फोटोग्राफी व कला पक्ष फिल्म में उत्तम रहा है। सभी कलाकारों का अपने चरित्र के प्रति ईमानदार समर्पण फिल्म को सफल बनाने में महत्वपूर्ण रहा है। 

फिल्म द्वारा आजकल बहुचर्चित बलात्कार समस्या के मनोविज्ञान को दर्शाया गया है। इसके मूल में निरभया कांड के मुख्य अभियुक्त राम सिंह द्वारा आत्म हत्या किए जाने के समाचार को रखा गया है। प्रस्तुत फिल्म में भी दिखाया गया है कि मोबाईल फोन पर अश्लील दृश्यों को देखने की प्रवृति ने नायक को बलात्कार करने को उत्प्रेरित तो कर दिया परंतु बाद में उसको आत्म ग्लानि होने से उसने अपने जीवन को समाप्त कर दिया। 
22-क़ैसर बाग स्थित इप्टा कार्यालय,गोमती तट व बाज़ारों में दृश्यों का फिल्मांकन किया गया है। प्रदीप घोष साहब द्वारा इस फिल्म के माध्यम से युवकों को सुधरने का संदेश दिया है जो उनका एक सराहनीय प्रयास है और इसके लिए वह धन्यवाद व सम्मान  के पात्र हैं ।  
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Sunday 30 August 2015

शैलेंद्र :दुनिया बनाने वाले,सजनवा बैरी, रे झूठ मत बोल



 30 अगस्त 2015  ·
धरती कहे पुकार के बीज बिछा दे प्यार के,मौसम बीता जाय ! :
हिंदी सिनेमा के हरदिलअज़ीज गीतकारों में एक शैलेन्द्र उर्फ़ शंकर दास केसरी लाल का तीन दशकों लंबा फ़िल्मी सफ़र कामयाब भी रहा था और दुखद भी। बिहार के भोजपुर जिले के शैलेन्द्र ने अरसे तक रेलवे में वेल्डर की नौकरी की। 1947 में मुंबई के एक मुशायरे में भारत विभाजन की त्रासदी पर उनकी एक नज़्म 'जलता है पंजाब' ने राज कपूर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपनी फिल्म 'बरसात' में उनसे दो गीत - 'बरसात में तुमसे मिले हम सजन' और 'पतली कमर है' लिखवाई जिनका संगीत दिया था शंकर जयकिशन ने। इन गीतों की लोकप्रियता ने इतिहास रचा और फिर बन बन गई राज कपूर, शंकर जयकिशन, हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र की 'ड्रीम टीम'। यह टीम 'मेरा नाम जोकर' तक कायम रही जबतक शैलेन्द्र इस दुनिया से विदा नहीं हो गए। शैलेन्द्र ने संगीतकार शंकर जयकिशन, सचिनदेव वर्मन, सलिल चौधरी, चित्रगुप्त, राहुलदेव बर्मन, सी. रामचंद्र और रविशंकर के लिए कुल 85 फिल्मों के लिए गीत लिखे। 1967 में उन्होंने अपनी तमाम कमाई खर्च कर फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर राज कपूर और वहीदा रहमान को लेकर वासु भट्टाचार्य के निर्देशन में अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म 'तीसरी कसम' बनाई। वर्ष की श्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करने के बावजूद यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गई। सब कुछ लुटा देने के सदमे ने शैलेन्द्र के प्राण ले लिए। जयंती (30 अगस्त) पर हमारे दिलों के बेहद करीब इस महान गीतकार को भावभीनी श्रधांजलि, उनके एक अमर गीत के साथ !
दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
काहे को दुनिया बनाई तूने
काहे को दुनिया बनाई
काहे बनाए तूने माटी के पुतले
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने दुनिया का मेला
इसमें लगाया जवानी का रेला
गुपचुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई
काहे को दुनिया बनाई
प्रीत बनाके तूने जीना सिखाया
हंसना सिखाया, रोना सिखाया
दुनिया के पथ पर मीत मिलाए
मीत मिलाके तूने सपने जगाए
सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई
काहे को दुनिया बनाई !
साभार :

Saturday 29 August 2015

लीना चंदावरकर---संजोग वाल्टर






साभार :
Sanjog Baltar


लीना चंदावरकर ने हिंदी फिल्मों में अपनी पारी की शुरुआत सुनील दत्त की फिल्म *मन का मीत 1968 से की थी इस फिल्म के हीरो थे सुनील दत्त के भाई सोम दत्त 1970 में सास भी कभी बहु थी,ज़वाब,हमजोली,1971 में जाने अनजाने,मैं सुन्दर हूँ,महबूब की मेहँदी 1972 में प्रीतम,रखवाला,दिल का राजा,1973 मनचली,हनीमून,एक कुंवारा एक कुंवारी,1974 में अनहोनी,ईमान,चोर चोर, 1975 बिदाई,अपने रंग हज़ार,एक महल हो सपनो का,1976 में बैराग, कैद,जग्गू 1977 में नामी चोर,यारों का यार,आखिरी गोली आफत, 1978 में नालायक,1980 में ज़ालिम 1985 में सरफ़रोश में अभिनय किया, लीना चंदावरकर की किस्मत में हर साल एक हिट लिखी थी उस दौर के हर बड़े हीरो के साथ उन्होंने काम किया,दिलीप कुमार शम्मी कपूर,धर्मेन्द्र,राजेश खन्ना,संजीव कुमार,विश्वजीत,विनोद खन्ना,शत्रुघन सिन्हा.लीना चंदावरकर का जन्म कर्णाटक के धारवाड़ में 29 अगस्त 1950 को फौजी परिवार में हुआ था.Fresh Face फिल्म फेयर कम्टीशन के ज़रिये वो लाइम लाईट में आयी 2007 में सोनी पर दिखाई दी थी,लीना चंदावरकर का नाम रखवाला की शूटिंग के दौरान धमेद्र के साथ जुडा,जिसे फ़िल्मी जुबां में गासिप कहा गया .लीना चंदावरकर ने अपने फ़िल्मी करियर के चड़ते ग्राफ के बीच दिसम्बर 08 1975 को बम्बई में सिद्धार्थ बांदोडकर के साथ शादी करे सबको चौंका दिया सिद्धार्थ गोवा के पहले मुख्य मंत्री भाऊ साहेब बांदोडकर के बेटे थे,इस शादी को उस दौर में फैरी टेल कहा गया था. शाशिकलाताई काकोडकर, सिद्धार्थ की बड़ी बहन थी और वे भी गोवा की मुख्य मंत्री रही.18 दिसम्बर 1975 को सिद्धार्थ एक हादसे का शिकार हो गये उनके अपने ही रिवाल्वर से उन्हें गोली लग गयी इस हादसे से गोवा से लेकर दिल्ली तक तक हडकंप मच गया क्योंकी घायल होने वाला सिद्धार्थ तब की मुख्य मंत्री का भाई था,पहले गोवा फिर बम्बई में सिद्धार्थ का इलाज़ हुआ,कई महीने अस्पताल में रहने के बाद वो घर लौट आये,1976 के बीच में सिद्धार्थ के जखम जो ठीक होने के बाद फिर से उभरे लिहाजा बम्बई के जसलोक अस्पातल में उन्हें फिर से भर्ती किया गया जहाँ वो 7 नवंबर 1976 को महज़ 26 साल की उम्र में जिंदगी से जंग हर गये.इस मौत से गोवा थम गया थासिद्धार्थ के अंतिम संस्कार वाले दिन पूरा गोवा बंद था,लोग शामिल थे सिद्धार्थ की अंतिम यात्रा में, मुख्यमंत्री शाशिकलाताई काकोडकर ने गोवा में सिद्धार्थ की याद में memorial stands बनवाया जो उनकी माँ सुनंदाबाई के memorial stands के पास है. Shashikalatai has dedicated the Siddharth Bhavan in memory of her beloved brother.लीना महज़ 26 साल की उम्र में विधवा हो चुकी थी,हिंदी फिल्मों से दूर थी.1980 में लीना ने अपनी उम्र से 20 साल बड़े किशोर कुमार से शादी कर और वो उनकी चौथी और आखिरी बीबी थी,किशोर और लीना के बेटे का नाम सुमित है 13 अक्टोबर 1987 को 39 साल की उम्र में लीना फिर विधवा हो गयी,आज कल वे सुमित और अपने सौतेले बेटे अमित कुमार और अमित की पत्नी और अमित की माँ के साथ रह रही है.लीना को "चाइनीज़ डौल" भी कहा जाता था .

Thursday 27 August 2015

पुण्यतिथि पर मुकेश जी : वह सुबह कभी तो आएगी, हम तो जाते अपने गाँव,ये मेरा दीवानापन है

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Monday 24 August 2015

दूर गगन की छाँव में : एक सैनिक के स्वाभिमान व वात्सल्य प्रेम को दर्शाती है --- विजय राजबली माथुर

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किशोर फिल्म्स द्वारा 1964 में रिलीज़ हुई  'दूर गगन की छाँव में ' किशोर कुमार द्वारा लिखित, निर्देशित व संगीतबद्ध एक ऐसी सामाजिक फिल्म है जिसमें ' शंकर ' के रूप में  मुख्य भूमिका भी किशोर कुमार जी ने ही निभाई है। उनके पुत्र अमित गांगुली ही इस फिल्म में भी उनके पुत्र 'रामू' की भूमिका में हैं। अन्य महत्वपूर्ण भूमिका 'बंसी काका' व 'मीरा ' की हैं। मीरा के रूप में सुप्रिया चौधरी की भूमिका अविवाहित होते हुये भी एक स्नेहिल माँ के चरित्र को बखूभी निभाने वाली रही है। करुणा, दया और वीरता-दृढ़ता की साक्षात मूर्ती है -मीरा। हर चरित्र में सुप्रिया चौधरी खरी उतरी हैं। माँ को खो चुके और उसी सदमे में गूंगे होने वाले बालक रामू को ऐसा मातृत्व दिया है मीरा ने कि वह अपने पिता के बाद मीरा को ही महत्व देने व चाहने लगा है । शैलेंद्र के लिखे और आशा भोंसले के गाये गीत :' खोया खोया चंदा ' पर सुप्रिया चौधरी  का वात्सल्य प्रेम देखिये ( इस वीडियो द्वारा ) :



 

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फिल्म के सभी गीतों की संरचना शैलेंद्र द्वारा की गई है और गाये हैं- किशोर कुमार, आशा भोंसले, मन्ना डे व हेमंत कुमार ने। 
अन्य कलाकारों में लीला मिश्रा 'जमुना काकी' के रूप में मीरा की संरक्षिका हैं, मोनी चटर्जी गाँव के डाक्टर बने हैं, नाना पलसिकर ने 'पगला' की भूमिका में रामू को जो सहयोग दिया है वह सराहनीय है। शोषक-उत्पीड़क जमींदार 'ठाकुर' की भूमिका में हैं राज मेहरा और उनके पुत्रों की भूमिका में क्रमशः इफ़्तेखार 'जग्गा' तथा साजन 'छोटा बेटा ' बने हैं। ठाकुर के मित्र 'विक्रम ' की भूमिका में हैं - हीरा लाल। 
जीवन कला, एस एन बनर्जी, केसरी, शमशेर सिंह, नन्द किशोर ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय किया है। 

फिल्म के प्रारम्भ में दिखाया गया है कि बंसी काका पर आश्रित रामू नित्य अपने पिता की वापिसी का इंतज़ार करता है जो कि सेना में युद्ध पर गया हुआ है। अंततः शंकर युद्ध की समाप्ति पर छुट्टी लेकर जब गाँव आता है तो उसे बंसी काका से पता चलता है कि तूफान आने पर उसके घर में लगी आग से घिरी रामू की माँ को बचाने के चक्कर में उसके पिता और पत्नी दोनों दिवंगत हो चुके हैं। इसी सदमे ने रामू की आवाज़ छीन ली है। 

शंकर अपनी जायदाद बंसी काका को सौंप कर रामू को लेकर इलाज करवाने के लिए शहर की ओर चलता है लेकिन मार्ग में ठाकुर और उसके गुंडों द्वारा उस पर  पीछे से हमला करके घायल कर दिया जाता है। रामू द्वारा उधर से गुज़र रही मीरा से इशारों द्वारा मदद की गुहार करने पर वह घायल शंकर को डाक्टर के चिकित्सालय पर ले जाती है और फिर अपने घर पर शरण देती है। रामू का मन मोह व दिल जीत चुकी मीरा स्वाभिमानी शंकर को रामू का वास्ता देकर वहाँ ठीक होने तक रहने को रोक लेती है। ठीक होने के बाद शंकर डाक्टर के कहने पर रामू के इलाज के वास्ते शहर के बड़े डाक्टर के पत्र के इंतज़ार में मीरा के घर रुका रहता है और उसके घर के उपकरण, छत आदि की मरम्मत कर देता है। एक दिन बाज़ार जाने पर रामू के लिए खिलौना पिस्तौल व बांसुरी ला देता है। बांसुरी बजा कर रामू अपने पिता को गाने के लिए कहता है। उस अवसर पर  मार्मिक व वास्तविक यथार्थ पर आधारित यह गीत शंकर की भूमिका में गाया गया  खुद  किशोर कुमार जी के स्वरों में :




एक सैनिक के नाते जो कर्मठता व स्वाभिमान होना चाहिए वह तो शंकर में है ही  तभी तो  रामू को भूख लगने  पर भी दूसरी जगह  खाना न मांगने की सीख देना वह नहीं भूले हैं लेकिन संतान के प्रति वात्सल्य प्रेम से भी वह वंचित नहीं है। इस गीत के माध्यम से किशोर कुमार जी ने 'गम' और 'दुख' से परे प्यार-प्रेम व आज़ादी से परिपूर्ण समाज की परिकल्पना की है जो आशावाद पर आधारित हो; 'शिकवा' , 'गिला ',बैर - विरोध रहित हो। गमों के आघात से पीड़ित एक मनुष्य की कामना है कि समाज से अंधकार दूर हो और सौहाद्र व स्वतन्त्रता सबका संबल बनें। एक आदर्श समाज का स्वप्न प्रस्तुत करके निर्माता -निर्देशक के रूप में किशोर कुमार जी ने अपनी दूरदर्शी और पारखी बुद्धि का अद्भुत आभास इस फिल्म के माध्यम से दिया है। ठाकुर परिवार के माध्यम से जमींदारों के शोषण, उत्पीड़न और लुटेरी प्रवृत्ति को सजग रूप में प्रस्तुत किया गया है। 

जहां समाज की विकृति को इंगित किया है वहीं इसी समाज में उपलब्ध नेक इन्सानों के रूप में बंसी काका व मीरा के चरित्रों के माध्यम से किशोर कुमार जी ने समाज के उज्ज्वल पक्ष पर सहज व सरल  रूप से प्रकाश डाला है। 51 वर्ष व्यतीत होने के बावजूद यह फिल्म आज भी एक आदर्श समाज की परिकल्पना हेतु मार्ग-दर्शक के रूप में उचित प्रतिनिधित्व करती  हुई प्रासांगिक प्रतीत होती है। 

हालांकि अन्य फिल्मों की ही भांति इसमें भी पाखन्ड व अंध-विश्वास का थोड़ा पुट तब आता है जब शंकर को  विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा रामू की आवाज़ लौटाने में असमर्थता व्यक्त की जाती है और धन की चोरी हो जाती है। किन्तु मीरा के पास पुनः वापिस आने पर शंकर ने जब 'भगवान' का ज़िक्र किया है तब अप्रत्यक्ष रूप से मीरा की ओर ही इशारा करते दर्शाया गया है। एक और हादसे के बाद जब रामू की आवाज़ वापिस लौट आती है तब जितनी प्रसन्नता शंकर को होती है उतनी ही प्रसन्नता मीरा को भी होती है । रामू द्वारा मीरा को माँ सम्बोधन की अनुमति शंकर द्वारा दे दी जाती है। यद्यपि मीरा ने शंकर व रामू की सेवा निस्वार्थ की थी किन्तु उसको उसका वाजिब हक मिल ही गया। 

Saturday 15 August 2015

स्वाधीनता दिवस पर :दिल दिया, मेरे वतन,धरती सोना उगले,नन्हा मुन्ना,ओ यारा दिलदारा,हम से है -राह संघर्ष की


 


<<<< Esliye Rah Sangharsh Ki Hum Chune Jindagi Asuo me Nahae n Ho >>>>>> (In My Voice)
Posted by Ranjana Mahajan Kale on Friday, July 10, 2015

Tuesday 4 August 2015

खिलंदड़ा अंदाज़ था किशोर कुमार का --- ध्रुव गुप्त

**जन्मतिथि (4 अगस्त) पर किशोर दा को भावभीनी श्रद्धांजलि !:



मेरे ये गीत याद रखना, कभी अलविदा ना कहना !

अपने निजी जीवन में उदास, खंडित और रहस्यमय किशोर कुमार रूपहले परदे के ऐसे पहले अदाकार थे जिनके पास अपने समकालीन अभिनेताओं के बरक्स मानवीय भावनाओं और विडंबनाओं को अभिव्यक्त करने का एकदम अलग-सा खिलंदड़ा अंदाज़ था। वे सिनेमा के ऐसे विदूषक थे जो त्रासद से त्रासद परिस्थितियों को एक हंसते हुए बच्चे की मासूम निगाह से देख सकते थे। ऐसे नायक थे जिन्होंने नायकत्व की स्थापित परिभाषाओं को बार-बार तोडा। हाफ टिकट, चलती का नाम गाड़ी, रंगोली, मनमौजी, झुमरू, दूर गगन की छांव में, दूर का राही, पड़ोसन जैसी फिल्मों में उन्होंने अभिनय के नए मुहाबरों से हमें परिचित कराया । वे ऐसे गायक थे जिनकी आवाज़ में शरारत भी थी, संज़ीदगी भी और बेपनाह दर्द भी। उनके कुछ गीत - छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, कोई हमदम न रहा,ठंढी हवा ये चांदनी सुहानी,ये रातें ये मौसम नदी का किनारा, दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना, तेरी दुनिया से होके मजबूर चला, पल पल दिल के पास तुम रहती हो, फूलों के रंग से दिल के कलम से, हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते,मेरे नैना सावन भादों, ओ मेरी प्यारी बिंदु, जीवन से भरी तेरी आंखें, चिंगारी कोई भड़के, ये क्या हुआ कब हुआ कैसे हुआ, ये शाम मस्तानी, ये जो मुहब्बत है ये उनका है काम, घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं, सबेरे का सूरज तुम्हारे लिए है, ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना, रिमझिम गिरे सावन, मुसाफिर हूं यारों, ज़िंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मकाम, तुम बिन जाऊं कहां, दीवाना लेके आया है दिल का तराना, मेरे महबूब क़यामत होगी, दिल आज शायर है, शोख़ियों में घोला जाय फूलों का शबाब, छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा जैसे सैकड़ों गीत हमारी संगीत विरासत का अहम हिस्सा हैं। किशोर दा हिंदी सिनेमा के सबसे अबूझ और विवादास्पद व्यक्तित्व रहे जिनकी एक-एक अदा, जिनकी एक-एक हरकत उनके जीवन-काल में ही किंवदंती बन गईं।

जन्मतिथि (4 अगस्त) पर किशोर दा को भावभीनी श्रद्धांजलि !

Saturday 1 August 2015

"ट्रेजेडी क्वीन":मीना कुमारी ---संजोग वाल्टर

1अगस्त जन्मदिन पर :



फिल्म साहिब बीबी और गुलाम में छोटी बहु (मीना कुमारी ) अकेलेपन से तंग आकर शराब का सहारा लेती है ऐसा ही हुआ असलियत में उनकी ज़िन्दगी जब उन्हें सहारे की ज़रूरत थी तब उनको सहारा नहीं मिला,मीना कुमारी (1अगस्त,1932-31 मार्च,1972) बेमिसाल अदाकारा,जिन्हें "ट्रेजेडी क्वीन" का खिताब मिला,मीना कुमारी का असली नाम महज़बी बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं । उनके वालिद अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के मझे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था। उनकी वालिदा प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो),भी मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी जिनका ताल्लुक टैगोर परिवार से था। महज़बी ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा से पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस , निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं। 1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत भूमिकाएँ करने वाले की होकर सीमित हो गयी। लेकिन ऐसा होने के बावज़ूद उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू भारतीय दर्शकों पर हमेशा छाया रहा। मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था। लेकिन स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से 1964 में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है । शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी। मीना कुमारी उम्र भर एक पहेली बनी रही महज चालीस साल की उम्र में वो मौत के मुह में चली गयी इसके लिए मीना के इर्दगिर्द कुछ रिश्तेदार,कुछ चाहने वाले और कुछ उनकी दौलत पर नजर गढ़ाए वे लोग हैं, जिन्हें ट्रेजेडी क्वीन की अकाल मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। मीना कुमारी को एक अभिनेत्री के रूप में, एक पत्नी के रूप में,एक प्यासी प्रेमिका के रूप में और एक भटकती-गुमराह होती हर कदम पर धोखा खाती स्त्री के रूप में देखना उनकी जिंदगी का सही पैमाना होगा। मीना कुमारी की नानी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के छोटे भाई की बेटी थी, जो जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही प्यारेलाल नामक युवक के साथ भाग गई थीं। विधवा हो जाने पर उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया। दो बेटे और एक बेटी को लेकर बम्बई आ गईं। नाचने-गाने की कला में माहिर थीं इसलिए बेटी प्रभावती के साथ पारसी थिएटर में भरती हो गईं। प्रभावती की मुलाकात थियेटर के हारमोनियम वादक मास्टर अली बख्श से हुई। उन्होंने प्रभावती से निकाह कर उसे इकबाल बानो बना दिया। अली बख्श से इकबाल को तीन संतान हुईं। खुर्शीद, महज़बी (मीना कुमारी) और तीसरी महलका (माधुरी)। अली बख्श रंगीन मिजाज के व्यक्ति थे। घर की नौकरानी से नजरें चार हुईं और खुले आम रोमांस चलने लगा। परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। महजबीं को मात्र चार साल की उम्र में फिल्मकार विजय भट्ट के सामने खड़ा कर दिया गया। इस तरह बीस फिल्में महजबीं (मीना) ने बाल कलाकार के रूप में न चाहते हुए भी की। महज़बीं को अपने पिता से नफरत सी हो गई और पुरुष का स्वार्थी चेहरा उसके जेहन में दर्ज हो गया। फिल्म बैजू बावरा (1952) से मीना कुमारी के नाम से मशहूर महजबीं ने अपने वालिद की इमेज को दरकिनार करते हुए उनसे हमदर्दी जताने वाले कमाल अमरोही की शख्सियत में अपना बेहतर आने वाला कल दिखाई दिया,वे उनके नजदीक होती चली गईं। नतीजा यह रहा कि दोनों ने निकाह कर लिया। लेकिन यहाँ उसे कमाल साहब की दूसरी बीवी का दर्जा मिला। उनके निकाह के इकलौते गवाह थे जीनत अमान के अब्बा अमान साहब। कमाल अमरोही और मीना कुमारी की शादीशुदा जिंदगी करीब दस साल तक एक सपने की तरह चली। मगर औलाद न होने की वजह से उनके ताल्लुतक में दरार आने लगी। लिहाज़ा दोनों अलग हो गये कहते है उस रात मीना कुमारी ने जब कमाल अमरोही का घर छोड़ा था, किसी ने भी उनकी मदद नहीं की भारत भूषण,प्रदीप कुमार,राज कुमार किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया,पैदा होते ही वालिद अली बख्श ने रुपये के तंगी और पहले से दो बेटियों के बोझ से घबरा कर इन्हे एक मुस्लिम अनाथ आश्रम में छोड़ दिया था, मीना कुमारी की माँ के काफी रोने -धोने पर वे इन्हे वापस ले आए। परिवार हो या शादीशुदा जिंदगी मीना कुमारी के हिस्से में सिर्फ तन्हाईयाँ हीं आई,फिल्म फूल और पत्थर (1966) के हीरो ही-मैन धर्मेन्द्र से मीना की नजदीकियाँ, बढ़ने लगीं। इस दौर तक मीना कामयाब,मशहूर व बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट हीरोइन के रूप में जानी जाने लगी थी,धर्मेन्द्र का करियर डाँवाडोल चल रहा था। उन्हें मीना का मजबूत पल्लू थामने में अपनी सफलता महसूस होने लगी। गरम धरम ने मीना को सूनी-सपाट अंधेरी जिंदगी को एक ही-मैन की रोशन से भर दिया। कई तरह के गॉसिप और गरमा-गरम खबरों से फिल्मी पत्रिकाओं के पन्ने रंगे जाने लगे। इसका असर मीना-कमाल के रिश्ते पर भी हुआ। मीना कुमारी का नाम कई लोगों से जोड़ा गया। बॉलीवुड के जानकारों के अनुसार मीना-धर्मेन्द्र के रोमांस की खबरें हवा में बम्बई से दिल्ली तक के आकाश में उड़ने लगी थीं। जब दिल्ली में वे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन से एक कार्यक्रम में मिलीं तो राष्ट्रपति ने पहला सवाल पूछ लिया कि तुम्हारा बॉयफ्रेंड धर्मेन्द्र कैसा है? फिल्म बैजू बावरा के दौरान भारत भूषण भी अपने प्यार का इजहार मीना कुमारी से कर चुके थे। जॉनी (राजकुमार) को मीना कुमार से इतना इश्क हो गया कि वे मीना के साथ सेट पर काम करते अपने डायलोग भूल जाते थे। इसी तरह फिल्मकार मेहबूब खान ने महाराष्ट्र के गर्वनर से कमाल अमरोही का परिचय यह कहकर दिया कि ये प्रसिद्ध स्टार मीना कुमारी के पति हैं। कमाल अमरोही यह सुन नीचे से ऊपर तक आग बबूला हो गए थे। धर्मेन्द्र और मीना के चर्चे भी उन तक पहुँच गए थे। उन्होंने पहला बदला धर्मेन्द्र से यह लिया कि उन्हें पाकीजा से आउट कर दिया। उनकी जगह राजकुमार की एंट्री हो गई। कहा तो यहाँ तक जाता है कि अपनी फिल्म रजिया सुल्तान में उन्होंने धर्मेन्द्र को रजिया के हब्शी गुलाम प्रेमी का रोल देकर मुँह काला कर दिया था। पाकीजा फिल्म निर्माण में सत्रह साल का समय लगा। इस देरी की वजह मीना-कमाल का अलगाव रहा। लेकिन मीना जानती थी कि फिल्म पाकीजा कमाल साहब का कीमती सपना है। उन्होंने फिल्म बीमारी की हालत में की। मगर तब तक उनकी लाइफ स्टाइल बदल चुकी थी। गुरुदत्त की फिल्म साहिब, बीवी और गुलाम की छोटी बहू परदे से उतरकर मीना की असली जिंदगी में समा गई थी। मीना कुमारी पहली हेरोइन थी,जिन्होंने बॉलीवुड में पराए मर्दों के बीच बैठकर शराब के प्याले पर प्याले खाली किए। धर्मेन्द्र की बेवफाई ने मीना को अकेले में भी पीने पर मजबूर किया। वे छोटी-छोटी बोतलों में शराब भरकर पर्स में रखने लगीं। जब मौका मिला एक शीशी गटक ली। कहते है की धर्मेन्द्र ने भी मीना कुमारी का इस्तेमाल किया उन दिनों मीना कुमारी की तूती बोलती थी और धर्मेन्द्र नए कलाकार मीना कुमारी ने धर्मेन्द्र की हर तरह से मदद की फूल और पत्थर की कामयाबी के धर्मेन्द्र उनसे धीरे धीरे अलग होने लगे थे,1964 में धर्मेन्द्र की वज़ह से ही कमाल अमरोही ने मीना को तलाक दे दिया एक बार फिर से धोका मिला मीना कुमारी को,पति का भी साथ छुड गया और प्रेमी भी साथ छोड़ गया है धर्मेन्द्र ने  कभी उनसे सच्चा प्यार नहीं किया धर्मेन्द्र के लिए मीना तो बस एक जरिया भर थी यह बेबफाई मीना सह ना सकी सह्राब की आदि हो चुकी मीना की मौत लीवर सिरोसिस की वज़ह से हो गयी दादा मुनि अशोक कुमार, मीना कुमारी के साथ अनेक फिल्में कर चुके थे। एक कलाकार का इस तरह से सरे आम मौत को गले लगाना उन्हें रास नहीं आया। वे होमियोपैथी की छोटी गोलियाँ लेकर इलाज के लिए आगे आए। लेकिन जब मीना का यह जवाब सुना 'दवा खाकर भी मैं जीऊँगी नहीं, यह जानती हूँ मैं। इसलिए कुछ तम्बाकू खा लेने दो। शराब के कुछ घूँट गले के नीचे उतर जाने दो' तो वे भीतर तक काँप गए। आखिर 1956 में मुहूर्त से शुरू हुई पाकीजा 4 फरवरी 1972 को रिलीज हुई और 31 मार्च,1972 को मीना चल बसी। शुरूआत में पाकीज़ा को ख़ास कामयाबी नहीं मिली मिली थी पर मीना कुमारी की मौत ने फिल्म को हिट कर दिया तमाम बंधनों को पीछे छोड़ तनहा चल दी बादलों के पार अपने सच्चे प्रेमी की तलाश में। पाकीजा सुपरहिट रही। अमर हो गईं ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी। मगर अस्पताल का अंतिम बिल चुकाने लायक भी पैसे नहीं थे उस तनहा मीना कुमारी के पास। अस्पताल का बिल अदा किया वहाँ के एक डॉक्टर ने,जो मीना का जबरदस्त प्रशंसक था। "बैजू बावरा","परिणीता","एक ही रास्ता", शारदा"."मिस मेरी","चार दिल चार राहें","दिल अपना और प्रीत पराई","आरती","भाभी की चूडियाँ","मैं चुप रहूंगी","साहब बीबी और गुलाम","दिल एक मंदिर","चित्रलेखा","काजल","फूल और पत्थर","मँझली दीदी",'मेरे अपने",पाकीजा के किरदारों में उन्होंने जान डाल दी  थी,मीना कुमारी ने 'हिन्दी सिनेमा' में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी मिसाल बना हुआ है । वो लाज़वाब अदाकारा के साथ शायरा भी थी,अपने दिली जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयाँ चुभो रहा हो. गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है. गम का ये दामन शायद 'अल्लाह ताला' की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने -कहाँ अब मैं इस गम से घबरा के जाऊँ
कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको
चाँद तन्हा है,आस्मां तन्हा
दिल मिला है कहाँ -कहाँ तन्हां

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थात्थारता रहा धुआं तन्हां

जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हां है और जां तन्हां

हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हां

जलती -बुझती -सी रौशनी के परे
सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा

टुकडे -टुकडे दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली
जितना -जितना आँचल था, उतनी हीं सौगात मिली

जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसा कोई कहता हो, ले फ़िर तुझको मात मिली

होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे
जलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली
गुलज़ार साहब ने उनको एक नज़्म दिया था. लिखा था :

शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी
जिस वक्त मीना कुमारी की हमउम्र हेरोइन पेड़ के चक्कर लगाकर प्रेम गीत गा रही थी तब मीना कुमारी ने "मेरे अपने""गोमती के किनारे"में अपने बालों में सफ़ेदी लगाकर बुज़ुर्ग किरदार किये थे,"दुश्मन" में वो भाभी के किरदार में थी,जवाब में जीतेन्द्र की बड़ी बहन का किरदार बखूबी निभाया उस दौर की सभी हीरोइनों ने यह रोल करने से मना कर दिया अपनी इमेज खराब होने का वास्ता देकर
1971 पाकीज़ा,दुश्मन,मेरे अपने
1970 जवाब,विद्या
1967 मझली दीदी,नूरजहाँ,चन्दन का पालना,बहू बेगम
1966 फूल और पत्थर
1965 काजल,भीगी रात
1964 गज़ल,बेनज़ीर,चित्रलेखा
1963 दिल एक मन्दिर,अकेली मत जाइयो,किनारे किनारे
1962 साहिब बीबी और ग़ुलाम,मैं चुप रहूँगी,आरती
1961 प्यार का सागर,भाभी की चूड़ियाँ
1960 कोहिनूर,दिल अपना और प्रीत पराई
1959 अर्द्धांगिनी ,चार दिल चार राहें
1958 सहारा,फ़रिश्ता,यहूदी,सवेरा
1957 मिस मैरी,शारदा
1956 मेम साहिब,एक ही रास्ता,शतरंज
1955 आज़ाद,बंदिश
1954 बादबाँ
1953 परिनीता
1952 बैजू बावरा,तमाशा,
1951 सनम
1946 दुनिया एक सराय
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार
1966 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - काजल
1963 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - साहिब बीबी और ग़ुलाम
1955 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - परिनीता
1954 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - बैजू बावरा