#आओयादकरें :-
उषा खन्ना;- (7 October 1941-present ):
"जिंदगी प्यार का गीत है, इसे हर दिल को गाना पड़ेगा " गीत को अपने संगीत से सजाने से बहुत पहले ही उन्होंने गीतों के इर्द-गिर्द अपनी एक दुनिया बनाने का सपना बुन लिया था़ और इस सपने को लेकर वे बड़ी हुईं। आयीं तो गायिका बनने थीं, लेकिन उनमें एक बेहतरीन संगीतकार का हुनर था। अपने संगीत से उन्होंने तीन दशक तक लगभग ढाई सौ फिल्मों के गीतों को अपनी धुनों से सजाया़ आज उनके नाम का जिक्र भले कभी-कभार होता हो, लेकिन हिंदी सिनेमा के संगीतकारों की बात उनके नाम के बिना पूरी नहीं हो सकती़। संगीतकारों की दुनियां में जहाँ हमेशा से ही पुरुषो का दबदबा रहा है,अपनी संगीत से लोगों को दीवाना बनाने वाली इस बेमिसाल महिला संगीतकार का का नाम है "उषा खन्ना " । सिने संगीत में उषा खन्ना एकमात्र ऐसी महिला रही हैं जिनका पर्दापण किसी धूमकेतु की भांति हुआ था और वे इसी रूपक की भांति खो गईं. उषा खन्ना की पहचान भारतीय सिने इतिहास की पहली स्थापित महिला संगीतकार के तौर पर बनी थी. अफसोस, यह कायम ना रह सकी।
संगीत इन्हे विरासत में मिली थी। पिता मनोहर खन्ना शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता थे और गीत लिखा करते थे़। पिता के संगीत प्रेम ने उषा को भी संगीत की ओर मोड़ा़ वे पिता के लिखे गानों की धुन बनातीं, फिर उन्हें खुद गाती भी थीं। अरबी संगीत ने भी उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया़। अपनी पहली धुन महज सोलह साल की उम्र में बनाने वाली उषा जब गायिका के तौर पर मौका पाने के लिए शशिधर मुखर्जी से मिलीं, तो उन्होंने अपनी ही धुनों से सजाये कुछ गीत उन्हें सुनाये़। उनके गीत सुन कर शशिधर मुखर्जी ने कहा ‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम लता और आशा जैसी गायिकाओं से अच्छा गाती हो? ये गीत अगर तुमने बनाये हैं, तो तुम संगीतकार क्यों नहीं बन जातीं? अगले कुछ महीनों तक वे उषा से हर रोज दो गानों की धुन बनवाते़। अच्छी तरह परखने और उनकी बनायी कई धुनों को सुनने के बाद 1959 उन्होंने ‘दिल दे के देखो’ में उषा को बतौर संगीतकार मौका दिया़। इस पहली ही फिल्म के गीतों की सफलता ने उनके लिए संगीत की दुनिया का रास्ता तैयार कर दिया़।
असल में, उषा खन्ना पूर्णिमा—अमावस की तरह रहीं. ना पूरी तरह जाहिर ना पूरी तरह नजरबंद. उनका होना, उनके होते हुए भी नहीं होने के बराबर रहा. यह ऐसा ही रहा जैसे वे मौजूद रहीं लेकिन पूरी तरह से कभी सामने नहीं आईं. बीच—बीच में आकर आभास कराती रहीं मौजूदगी का, जब उनकी मौजदूगी प्रखर होने लगतीं वे फिर लंबे समय के लिए खो जातीं। आज वे 74 साल की हैं और किसी प्रकार की सुखिर्यों का हिस्सा नहीं बनतीं ,किसी पार्टी में नहीं जाती हैं .संगीत आधारित किसी कार्यक्रम में भी शिरकत नहीं करतीं. सफलता के चरम पर भी वे मुख्यधारा में नहीं रहीं तो अब कैसे रह सकती हैं।
उन्होंने जिन फिल्मों में संगीत दिया ,उनमे से प्रमुख हैं :- दिल देके देखो (1959 ),शबनम (1964) , निशान (1965), आग (1967 ),,मुनीमजी (1972 ),अपराधी (1974 ), सौतन (1983 ),दिल परदेशी हो गया (2003) आदि। बात अगर गीत की करें तो इनके द्वारा संगीतबद्ध किये इतने प्यारे तथा मीठे गीत हैं ,अगर जिक्र करना शुरू करूँ तो वक़्त की कमी ही जाएगी।
उन्होंने आज गायिकी में स्थापित कई बड़े नाम मसलन, पंकज उदास, रूप कुमार राठौर और सोनू निगम को पहला मौका दिया था़ लेकिन उगते सूरज को सलाम करने के आज के समय में लाखों श्रोताओं के दिलों में सुकून का दीया जलानेवाली उषा खन्ना का जिक्र कहीं नहीं दिखता।
'धन्यवाद "
उषा खन्ना;- (7 October 1941-present ):
"जिंदगी प्यार का गीत है, इसे हर दिल को गाना पड़ेगा " गीत को अपने संगीत से सजाने से बहुत पहले ही उन्होंने गीतों के इर्द-गिर्द अपनी एक दुनिया बनाने का सपना बुन लिया था़ और इस सपने को लेकर वे बड़ी हुईं। आयीं तो गायिका बनने थीं, लेकिन उनमें एक बेहतरीन संगीतकार का हुनर था। अपने संगीत से उन्होंने तीन दशक तक लगभग ढाई सौ फिल्मों के गीतों को अपनी धुनों से सजाया़ आज उनके नाम का जिक्र भले कभी-कभार होता हो, लेकिन हिंदी सिनेमा के संगीतकारों की बात उनके नाम के बिना पूरी नहीं हो सकती़। संगीतकारों की दुनियां में जहाँ हमेशा से ही पुरुषो का दबदबा रहा है,अपनी संगीत से लोगों को दीवाना बनाने वाली इस बेमिसाल महिला संगीतकार का का नाम है "उषा खन्ना " । सिने संगीत में उषा खन्ना एकमात्र ऐसी महिला रही हैं जिनका पर्दापण किसी धूमकेतु की भांति हुआ था और वे इसी रूपक की भांति खो गईं. उषा खन्ना की पहचान भारतीय सिने इतिहास की पहली स्थापित महिला संगीतकार के तौर पर बनी थी. अफसोस, यह कायम ना रह सकी।
संगीत इन्हे विरासत में मिली थी। पिता मनोहर खन्ना शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता थे और गीत लिखा करते थे़। पिता के संगीत प्रेम ने उषा को भी संगीत की ओर मोड़ा़ वे पिता के लिखे गानों की धुन बनातीं, फिर उन्हें खुद गाती भी थीं। अरबी संगीत ने भी उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया़। अपनी पहली धुन महज सोलह साल की उम्र में बनाने वाली उषा जब गायिका के तौर पर मौका पाने के लिए शशिधर मुखर्जी से मिलीं, तो उन्होंने अपनी ही धुनों से सजाये कुछ गीत उन्हें सुनाये़। उनके गीत सुन कर शशिधर मुखर्जी ने कहा ‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम लता और आशा जैसी गायिकाओं से अच्छा गाती हो? ये गीत अगर तुमने बनाये हैं, तो तुम संगीतकार क्यों नहीं बन जातीं? अगले कुछ महीनों तक वे उषा से हर रोज दो गानों की धुन बनवाते़। अच्छी तरह परखने और उनकी बनायी कई धुनों को सुनने के बाद 1959 उन्होंने ‘दिल दे के देखो’ में उषा को बतौर संगीतकार मौका दिया़। इस पहली ही फिल्म के गीतों की सफलता ने उनके लिए संगीत की दुनिया का रास्ता तैयार कर दिया़।
असल में, उषा खन्ना पूर्णिमा—अमावस की तरह रहीं. ना पूरी तरह जाहिर ना पूरी तरह नजरबंद. उनका होना, उनके होते हुए भी नहीं होने के बराबर रहा. यह ऐसा ही रहा जैसे वे मौजूद रहीं लेकिन पूरी तरह से कभी सामने नहीं आईं. बीच—बीच में आकर आभास कराती रहीं मौजूदगी का, जब उनकी मौजदूगी प्रखर होने लगतीं वे फिर लंबे समय के लिए खो जातीं। आज वे 74 साल की हैं और किसी प्रकार की सुखिर्यों का हिस्सा नहीं बनतीं ,किसी पार्टी में नहीं जाती हैं .संगीत आधारित किसी कार्यक्रम में भी शिरकत नहीं करतीं. सफलता के चरम पर भी वे मुख्यधारा में नहीं रहीं तो अब कैसे रह सकती हैं।
उन्होंने जिन फिल्मों में संगीत दिया ,उनमे से प्रमुख हैं :- दिल देके देखो (1959 ),शबनम (1964) , निशान (1965), आग (1967 ),,मुनीमजी (1972 ),अपराधी (1974 ), सौतन (1983 ),दिल परदेशी हो गया (2003) आदि। बात अगर गीत की करें तो इनके द्वारा संगीतबद्ध किये इतने प्यारे तथा मीठे गीत हैं ,अगर जिक्र करना शुरू करूँ तो वक़्त की कमी ही जाएगी।
उन्होंने आज गायिकी में स्थापित कई बड़े नाम मसलन, पंकज उदास, रूप कुमार राठौर और सोनू निगम को पहला मौका दिया था़ लेकिन उगते सूरज को सलाम करने के आज के समय में लाखों श्रोताओं के दिलों में सुकून का दीया जलानेवाली उषा खन्ना का जिक्र कहीं नहीं दिखता।
'धन्यवाद "
साभार :
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