Sunday, 25 October 2015

वो सुबह कभी तो आएगी :साहिर - अवाम के शायर ध्रुव गुप्त / वीर विनोद छाबड़ा



 24-10-2015 


तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको 
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है !

मरहूम साहिर लुधियानवी के बगैर न उर्दू शायरी का इतिहास लिखा जाना मुमक़िन है, न हिंदी और उर्दू फ़िल्मी गीतों का। शब्दों और संवेदनाओं के जादूगर साहिर के सीधे-सच्चे लफ़्ज़ों में कुछ ऐसा है जो सीधे दिल की गहराईयों में उत्तर जाता है। प्रगतिशील चेतना के इस शायर ने जीवन के यथार्थ और कुरूपताओं से बार-बार टकराने के बावजूद शायरी के बुनियादी स्वभाव कोमलता और नाज़ुकबयानी का दामन कभी नहीं छोड़ा। ग़ज़लों और नज़्मों की भीड़ में भी उनकी रचनाओं को एकदम अलग से पहचाना जा सकता है। कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूंनी और मज़रूह सुल्तानपुरी की तरह ही वे उर्दू अदब के साथ हिंदी-उर्दू सिनेमा के बेहद लोकप्रिय गीतकार रहे। धर्मपुत्र, मुनीम जी, जाल, पेइंग गेस्ट, फंटूश, प्यासा, वक़्त, धूल का फूल, हम हिंदुस्तानी, सोने की चिड़िया, फिर सुबह होगी, टैक्सी ड्राइवर, साधना, देवदास, ताजमहल, मुझे जीने दो, हम दोनों, प्यासा, बरसात की रात, नया दौर, दिल ही तो है, गुमराह, शगुन, चित्रलेखा, काजल, हमराज़, नीलकमल, दाग, दो कलियां, इज्ज़त, आंखें, बहू बेगम, लैला मज़नू, कभी कभी आदि फिल्मों के लिए लिखे उनके कालजयी गीत कभी भुलाये न जा सकेंगे। साहिर का व्यक्तिगत जीवन बेहद उदास और अकेला रहा। अपने से उम्र में बहुत बड़ी विख्यात पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम से बहुत गहरे, लेकिन असफल प्रेम-संबंध के बाद उन्होंने आजीवन अविवाहित रहना पसंद किया। पुण्यतिथि (25 अक्टूबर) पर इस महान शायर को खेराज़-ए-अक़ीदत, फिल्म 'फिर सुबह होगी' की उनकी एक कालजयी नज़्म की कुछ पंक्तियों के साथ !

वो सुबह कभी तो आएगी 
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी
माना कि अभी तेरे-मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी

प्रस्तुत है साहिर और अमृता के रिश्तों के नाट्य-रूपांतरण की एक तस्वीर !
वो सुबह कभी तो आएगी 
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
माना कि अभी तेरे-मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी


प्रस्तुत है साहिर और अमृता के रिश्तों के नाट्य-रूपांतरण की एक तस्वीर !


साहिर - अवाम के शायर।
-वीर विनोद छाबड़ा
आज अवाम के शायर साहिर की पुण्यतिथि है।
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है...दीदी फ़िल्म का यह गाना यों तो मुकेश ने भी दिल से गाया था लेकिन सुधा मल्होत्रा ने तो इसकी रूह में घुस कर गाया था। यही नहीं ख़ास इसे कम्पोज़ भी किया। उतनी ही शिद्दत से साहिर ने इसे लिखा भी था। सुधा को ये गीत बेहद पसंद था, दिल की अथाह गहराईयों तक। बताया जाता है कि सुधा उतनी ही शिद्दत से साहिर को चाहती थीं जितना कि अमृता प्रीतम को साहिर। ये बात और थी कि साहिर ने सिर्फ़ और सिर्फ़ अमृता को ही चाहा। यही वज़ह है कि साहिर के नगमों में रुमानियत के भरपूर दीदार होते हैं। मजबूरियां कुछ ऐसी थीं कि साहिर न अमृता से शादी कर पाये और न ही सुधा से। साहिर ने किसी और से भी शादी नहीं की। और अमृता ने भी नहीं। वो सिर्फ़ और सिर्फ़ मां के लिये जीते रहे।
साहिर लुधियाना एक मुस्लिम गुज्जर परिवार में जन्मे थे। बचपन बेहद अजीबो-गरीब और संगीन हालात में गुज़रा। माता-पिता की आपस में कतई पटरी नहीं खायी। बाप ने दूसरी शादी कर ली। वो बहुत ज़ालिम था। साहिर की मां को पूरी तरह से बरबाद करने पर अमादा था, चाहे इसमें साहिर की जान ही क्यों न चली जाये। लेकिन उनके इरादे कभी कामयाब नहीं हुए। साहिर की मां पूरी शिद्दत से अपने हकूक़ और साहिर के हक़ और हिफ़ाज़त के लिये लड़ती रही। यही वज़ह है कि साहिर ने ताउम्र जुल्म की मुख़ालफ़त की।
साहिर की तालीम और तरबीयत लुधियाना में ही हुई थी। १९४७ में साहिर लाहोर चले गये। मगर अपने इंकलाबी मिज़ाज और शायरी की वज़ह से पाकिस्तान की सरकार उनको शक़ की निगाह के देखने लगी। फिर उन्हें पाकिस्तान का इस्लामिक माहौल भी पसंद नहीं था। उन्हें अपने हिंदू-सिख दोस्तों की सोहबत बेहद याद आती थी। वो १९४९ में वो आज़ाद ख्याल भारत आ गये। कुछ वक़्त दिल्ली में गुज़ारा। फिर बंबई आ गये। सिर्फ़ शायरी से पेट नहीं भरता। लिहाज़ा फिल्मों की तरफ रुख किया।
साहिर को १९४९ में पहली फिल्म मिली ‘आज़ादी की राह’। मगर बदकिस्मती से न तो फिल्म को और न ही साहिर को त्वज़ो मिली। पहली कामयाबी नौजवान (१९५१) में मिली। इसका यह गाना तो बेहद कामयाब हुआ- ये ठंडी हवायें, लहरा के आयें...संगीत सचिन देव बर्मन का था। सचिनदा और साहिर की जोड़ी हिट हो गयी। उसी साल गुरूदत्त की ‘बाज़ी’ में फिर साथ रहा उनका। लेकिन ‘प्यासा’ में इसका दुखद अंत हो गया। दरअसल इस फिल्म की क़ामयाबी में ज्यादा ज़िक्र साहिर के नग्मों का हुआ। साहिर इस पर खुले आम बोले भी। सचिनदा को यह अच्छा नहीं लगा।
साहिर की शर्त होती थी कि उनको हर गीत का पारिश्रमिक लता मंगेशकर के मुकाबले एक रुपया ज्यादा मिले। जिन्होंने साहिर को बहुत करीब से देखा है वो जानते थे कि ‘प्यासा’ में गुरूदत्त ने विजय नाम के जिस किरदार को जीया था वो साहिर के भीतर का शायर ही है।
ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के,
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के,
कहां हैं कहां हैं मुहाफ़िज़ खुदी के?
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं?
इस गाने ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को भी हिला दिया था।
ताजमहल के बारे में साहिर के ख्यालात दुनिया के बिलकुल फ़र्क थे। दरअसल वो फकीरों के मसीहा थे। मुफलिसी को उन्होंने बेहद करीब से देखा था। रूमानियत में भी उनके इस ख़्यालात का दीदार हुआ। तभी तो उन्होंने लिखा था- इक शहंशाह ने दौलत के सहारा लेकर, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।
अब यह बात दीगर है कि ‘ताजमहल’ के बेहतरीन गानों के लिये ही साहिर को बेस्ट गीतकार के फिल्मफेयर अवार्ड से नवाज़ा गया था। पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी....जो वादा किया है वो निभाना पडेगा…जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं...यों साहिर ईनामों के मोहताज़ कभी नहीं रहे। अवाम ने उन्हें सराहा यही उनका सबसे बड़ा ईनाम था।
साहिर सिर्फ़ नज़्मों और गज़लों में ही नहीं, ज़मीनी सतह पर जुल्म और हक़ के लिये लड़ते रहे। इसकी तमाम मिसालें मौजूद हैं। हक़ के लिये लड़ाई का ही यह नतीजा था कि आल इंडिया रेडियो पर प्रसारित होने वाले गानों में गायक और संगीतकार के साथ गीतकार का नाम भी शामिल हुआ। नतीजतन गीतकार को भी रायल्टी मिलनी शुरू हो गयी।
बी.आर. चोपड़ा परिवार से साहिर के संबंध ताउम्र रहे। उनके लिये एक से एक यादगार गाने लिखे। औरत ने जन्म दिया मरदों को...मैं जब भी अकेली होती हूं....न तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा...चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों...साथी हाथ बढ़ाना...ऐ नीले गगन के तले...ऐ मेरी जोहरा जबीं...
यश चोपडा ने जब बी.आर. कैंप से अलग होकर अपना प्रोडक्शन हाऊस बनाया तो उनकी भी पहली पसंद साहिर ही रहे। एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग...मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो मैं बता दूं.…मैं पल दो पल का शायर हूं...
साहिर को सिपुर्द-ए-ख़ाक हुए आज पूरे पैंतीस बरस चुके हैं। यों तो इस अरसे में कई यादें मिट जाती हैं। लेकिन साहिर को भूलने के लिये सैकड़ों साल चाहिए। मोहब्बत और इंकलाब की एक साथ की शिद्दत से हिमायत करने वाले को यूं भी भुलाया जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
मैंने साहिर को १९७३ में देखा था। वे पहली नान-मुस्लिम उर्दू राईटर्स कांफ्रेंस में शिरकत करने लखनऊ आए थे। उनकी मसरूफ़ियात इतनी ज़्यादा थीं कि बात नहीं हो पायी। महज़ हाथ मिला पाया था। मगर इस बात का फ़ख्ऱ है कि मैंने साहिर को देखा ही नहीं, छूआ भी है। वो साथ में तीन पेटी VAT 69 लाये थे। एक घूंट मारने को मौका भी मिला था।
पंजाबियत के जज़्बे से भरपूर साहिर लुधियानवी का योगदान उर्दू अदब के लिए बेमिसाल है। मगर फिल्मों में उनका जलवा भी उतना ही असरदार रहा। ग़लती न होगी अगर कहा जाए कि आम आदमी साहिर को फ़िल्मों में हिस्सेदारी के लिए ही याद करता है। साहिर को भी मालूम था कि दूरदराज़ बैठे अवाम तक पहुंचने के लिए फ़िल्म ज्यादा जोरदार माध्यम है। साहिर की नस-नस में मोहब्बत, विद्रोह और जोश लहू बन कर बहता रहा। कहते हैं साहिर ने फ़िल्म की कहानी या सिचुुऐशन सुन कर गीत नहीं लिखे। उनके खजाने में बेशुमार गीत पहले से ही मौजूद रहते थे, जिसमें फ़िल्मकार को उसकी ज़रूरत का ढेर सा सामान आसानी से मिल जाता था।
साहिर असल मायनों में अवाम के शायर थे...न तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा...ओ मेरी ज़ोहरा ज़बीं...साथी हाथ बढ़ाना...ये देश है वीर जवानों का...बाबुल की दुआएं लेती जा.... हटा दो, हटा दो मेरे सामने से ये दुनिया तुम हटा दो...हमने तो जब कलियां मांगी…सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए....ये इश्क इश्क है...न तो कारवां की तलाश है...अल्लाह तेरो नाम...मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया...संसार से भागे फिरते हो...तोरा मन दरपन कहलाये...छू लेने दो नाजुक होंटो को...तुझे चांद के बहाने देखूं...महफिल से उठ जाने वालों, तुम लोगों पर क्या इल्जाम...कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...
बड़ी लंबी फेहरिस्त है, जिसे यहां समेटना मुमकिन नहीं।
अफ़सोस कि रूहानी मोहब्बत का सरपरस्त और जु़ल्म की मुख़ालफ़त करने वाला ये मसीहा महज़ ५९ साल की उम्र में गुज़र गया.… मुझसे पहले कितने शायर आये और आकर चले गये, कुछ आहें भर कर लौट गये कुछ नगमे गाकर चले गये। महेंद्र कपूर ने उनके लिये बिलकुल सही कहा था - मैं नहीं समझता कि साहिर जैसा शख्स दोबारा कभी पैदा होगा।
साहिर का जन्म ०८ मार्च १९२१ को लुधियाना में और इंतकाल २५ अक्टूबर १९८० को मुंबई में हार्ट अटैक से हुआ था।
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२५-१०-२०१५

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