Thursday 14 January 2016

यौमे पैदाईश (14 जनवरी) :कैफ़ी आज़मी ------ Dhruv Gupt

*****Sayyid Akhtar Hussein Rizvi, known as Kaifi Azmi (January 14, 1919 -- May 10, 2002) was an Indian Urdu poet. He was considered to be one the greatest Urdu poets of 20th century. Kaifi Azmi was married to Shaukhat Azmi. They have a daughter, Shabana Azmi and Baba Azmi.






Dhruv Gupt

जो दिल की राह से गुज़री है वो बहार हो तुम !
बीसवी सदी के महानतम शायरों में एक मरहूम कैफ़ी आज़मी अपने आप में यक व्यक्ति न होकर एक संस्था, एक पूरा युग थे जिनकी रचनाओं में हमारा समय और समाज अपनी तमाम खूबसूरती और कुरूपताओं के साथ बोलता नज़र आता है। एक तरफ उन्होंने आम आदमी के दुख-दर्द को शब्दों में जीवंत कर उसे अपने हक के लिए लड़ने का हौसला दिया तो दूसरी तरफ सौंदर्य और प्रेम की नाज़ुक संवेदनाओं को इस बारीकी से बुना कि पढ़ने-सुनने वालों के मुंह से बरबस आह निकल जाय। कैफ़ी साहब साहिर लुधियानवी और शकील बदायूनी की तरह उन गिने-चुने शायरों में थे जिन्हें अदब के साथ सिनेमा में भी अपार सफलता और शोहरत मिली। 1951 में फिल्म 'बुज़दिल' के लिए उन्होंने पहला गीत लिखा- 'रोते-रोते गुज़र गई रात'। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। उनके लिखे सैकड़ों फ़िल्मी गीत आज हमारी अनमोल संगीत धरोहर का हिस्सा हैं। गीतकार के रूप में उनकी प्रमुख फ़िल्में हैं - शमा, गरम हवा, शोला और शबनम, कागज़ के फूल, आख़िरी ख़त, हकीकत, रज़िया सुल्तान, नौनिहाल, सात हिंदुस्तानी, अनुपमा, कोहरा, हिंदुस्तान की क़सम, पाक़ीज़ा, उसकी कहानी, सत्यकाम, हीर रांझा, हंसते ज़ख्म, अनोखी रात, बावर्ची, अर्थ, फिर तेरी कहानी याद आई। इतनी सफलता के बावज़ूद हिंदी फ़िल्मी गीतों के बारे में उनका अनुभव यह था - 'फ़िल्मों में गाने लिखना एक अजीब ही चीज थी। आम तौर पर पहले ट्यून बनती थी, फिर उसमें शब्द पिरोए जाते थे। ठीक ऐसे कि पहले आपने क़ब्र खोद ली, फिर उसमें मुर्दे को फिट करने की कोशिश की। कभी मुर्दे का पैर बाहर रहता था, कभी हाथ। मेरे बारे में फ़िल्मकारों को यकीन हो गया कि मैं मुर्दे ठीक गाड़ लेता हूं, इसलिए मुझे काम मिलने लगा।' उन्होंने फिल्म हीर रांझा, गरम हवा और मंथन के लिए संवाद भी लिखे थे। इस विलक्षण शायर और गीतकार के यौमे पैदाईश (14 जनवरी) पर हमारी हार्दिक श्रधांजलि, उनकी एक ग़ज़ल के साथ !
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े
जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े
एक तुम के तुमको फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
मुद्दत के बाद उसने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े
साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े   
**********************************************************************************************

No comments:

Post a Comment