शुक्रवार, 22 अगस्त 2014
इन्सानी भाई चारे का संदेश है 'काबुलीवाला'
मिनी और उनके पिता श्री द्वारा खान
साहब के प्रति जो उदारता व सदाशयता ' काबुलीवाला ' कहानी में गुरुवर
रवीन्द्र नाथ ठाकुर साहब ने दिखाई थी उसे इस फिल्म में निर्माता बिमल राय व
निर्देशक हेमेन गुप्ता ने ज्यों का त्यों कायम रखा है। 53 वर्ष पूर्व
प्रदर्शित यह फिल्म आज भी ज्यों का त्यों समाज व राष्ट्र के समक्ष
सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष में सहायक है। 16 वीं लोकसभा चुनावों के
पूर्व व पश्चात जिस प्रकार सांप्रदायिकता को उभार कर व्यापार जगत ने
सामाजिक सौहार्द को नष्ट करके मानवता का हनन किया है उसको काबू करने में
'काबुलीवाला ' बहुत हद तक सफल साबित हो सकती है।
http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/08/blog-post_22.html
**************************************************************************************************
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की सुप्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला ' पर आधारित बिमल राय साहब द्वारा 1961 में प्रस्तुत इसी नाम की फिल्म द्वारा मानवीय संवेगों तथा भाई चारे को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
अब्दुल रेहमान खान (बलराज साहनी ) काबुल में अपनी वृदधा माँ और नन्ही बच्ची अमीना (बेबी फरीदा ) के साथ गुज़र-बसर कर रहे थे। ज़मीन और मकान का कर्ज़ अदा करने की खातिर उनको हिंदुस्तान आकर मेवा बेचने वाले का कार्य करना पड़ा। फेरी लगाने के दौरान खान साहब को एक नन्ही बच्ची मिनी (सोनू ) में अपनी पुत्री अमीना की छ्वी नज़र आई और वह उसे मेवे देने के बहाने से अक्सर मिलने आने लगे। मिनी के पिता श्री (साजन ) एक सहृदय लेखक थे उनको तो खान और अपनी बेटी की मुलाक़ात पर एतराज़ न था किन्तु उसकी माँ रमा (ऊषा किरण ) को यह पसंद न था उनको भय था कि खान उनकी बच्ची का अपहरण कर ले जाएगा। अतः मिनी को खान से मिलने पर प्रतिबंध लगा दिया जबकि खान साहब ने मिनी को उसके जन्मदिन पर आने का वायदा कर दिया था ।गुलज़ार साहब के डाइरेक्शन में छोटे-छोटे बच्चों द्वारा वाद्य संगीत तथा मिनी के नृत्य का दृश्य बेहद मनोहारी है। मिनी के बुलावे पर आए तो खान साहब परंतु उनकी मुलाक़ात नहीं करवाई गई।मिनी ने उनके हिस्से का नाश्ता छिपा कर रख लिया और अगले दिन उनको ढूंढ कर देने निकली तो भटक गई और बारिश में भीग कर एक पार्क के चबूतरे पर सो गई।
घर के लोगों ने समझा कि काबुलीवाला ही उसे उठा ले गया किन्तु उसके पिता को उन पर भरोसा था वह जानते भी थे कि मिनी ने उनके लिए नाश्ता छिपाया हुआ था । पता चलने पर खान साहब भी मिनी को ढूँढने निकले और मिलने पर उसे गोद में लेकर घर पहुंचाने चले परंतु मोहल्ले के लोगों ने उन पर हमला करके घायल कर दिया। मिनी के पिताजी ने उनको बचाया परंतु घटना का मानसिक आघात और बारिश में भींगने से मिनी को बुखार आ गया। डॉ साहब (अरुण बोस ) ने उपचार तथा खान साहब ने 'दुआ ' की जिससे मिनी ठीक हो गई।
अपनी बेटी की याद आने से खान साहब अपने वतन काबुल लौटने के लिए उधार वसूली करने को निकले तो एक शाल उधार लेने वाले ने न केवल इन्कार कर दिया बल्कि गाली-गुफ्तार भी कर दी जिस पर संघर्ष में वह खान साहब के हाथों मारा गया। अदालत में वकील के झूठ समझाने के बावजूद सिद्धांतों पर अडिग खान साहब ने सच्चाई बयान की जिस पर प्रसन्न होकर जज साहब ने कहा कि आज के जमाने में भी सच्चाई पर चलने के कारण वह मौत की बजाए खान साहब को दस वर्ष कारावास की सजा देते हैं।
जब खान साहब सजा काट कर लौटे तो उस रोज़ मिनी की शादी थी। खान साहब ने मिनी के पिताजी द्वारा पूछने पर बताया कि उनके देश में भी सरकार अमीरों का ही ख्याल रखती है और उन जैसे गरीब लोगों को किस्मत के भरोसे जीना होता है। सजावट,बाजे के लिए जमा रकम मिनी के पिताजी ने उससे मिलने आए खान साहब को उनकी बेटी अमीना की शादी के लिए ज़बरदस्ती सौंप दी तथा मिनी ने भी अपनी पसंद के कंगन अमीना के लिए भेंट कर दिये। खान साहब तो छोटी-छोटी लाल चूड़ियाँ ही मिनी के लिए उतना ही छोटा बच्चा समझ कर लाये थे।
मिनी और उनके पिता श्री द्वारा खान साहब के प्रति जो उदारता व सदाशयता ' काबुलीवाला ' कहानी में गुरुवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर साहब ने दिखाई थी उसे इस फिल्म में निर्माता बिमल राय व निर्देशक हेमेन गुप्ता ने ज्यों का त्यों कायम रखा है। 53 वर्ष पूर्व प्रदर्शित यह फिल्म आज भी ज्यों का त्यों समाज व राष्ट्र के समक्ष सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष में सहायक है। 16 वीं लोकसभा चुनावों के पूर्व व पश्चात जिस प्रकार सांप्रदायिकता को उभार कर व्यापार जगत ने सामाजिक सौहार्द को नष्ट करके मानवता का हनन किया है उसको काबू करने में 'काबुलीवाला ' बहुत हद तक सफल साबित हो सकती है।
No comments:
Post a Comment