Thursday, 9 July 2015

समाज में विषमता व कृषक उत्पीड़न को उजागर करती है 'दुश्मन' ---विजय राजबली माथुर

)सोमवार, 4 अगस्त 2014


समाज में विषमता व कृषक उत्पीड़न को उजागर करती है 'दुश्मन' 

फ़िल्मकार का दृष्टिकोण 'दंडात्मक' के बजाए 'सुधारात्मक' न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों को जागरूक करना था । परंतु लोग बाग तो महज मनोरंजन के दृष्टिकोण से ही  फिल्में देखते हैं किसी ओर से भी ऐसी पहल की मांग नहीं उठाई गई आज 43 वर्षों बाद भी लोग 'फांसी-फांसी' के नारों के साथ प्रदर्शन करते हैं और 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की ' की तर्ज़ पर नित नए-नए अपराधों की बाढ़ आती जाती है।  

http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/08/blog-post_45.html

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कल 03 अगस्त को जब विश्व मैत्री दिवस था हमने दुलाल गुहा साहब निर्देशित व 1971 में प्रदर्शित 'दुश्मन' का अवलोकन किया था। फिल्म की शुरुआत में दिखाया गया है कि मस्त-मौला ट्रक ड्राईवर सुरजीत सिंह (राजेश खन्ना) द्वारा मार्ग में टायर पंचर होने पर सहायक से उसे बदलने को कह कर सारी रात चमेली (बिन्दु ) के कोठे पर बिताने के कारण विलंब हो गया था अतः घने कुहासे में तीव्र गति से ट्रक चलाने के कारण एक गरीब किसान रामदीन अपने एक बैल सहित उसके नीचे आकर जीवन से हाथ धो बैठता है। अदालत में केस चलता है और रामदीन की विधवा मालती (मीना कुमारी जिनकी शायद यह अंतिम फिल्म थी ) जज साहब के घर पर अपने विकलांग  श्वसुर गंगा दीन के साथ जाकर यह कहती है कि अपराधी को सजा देने से उसके परिवार के कष्ट न दूर होंगे न ही रामदीन वापिस मिलेगा अतः उनके खुद के परिवार के सदस्यों को मौत की सजा दे दें।

सुधारात्मक न्याय व्यवस्था : 

जज साहब गहन मंथन करते हैं और स्वप्न में उच्च अदालत से अपना मन्तव्य बताते हैं जिस पर अमल करने की उनको स्वप्न में ही अनुमति मिल जाती है। एक अनोखे और गैर-पारंपरिक निर्णय में जज साहब ने सुरजीत को दो वर्ष की कैद की सजा सुनाई परंतु उसे जेल में न रख कर रामदीन के घर पर रह कर उसके परिवार के भरण -पोषण की ज़िम्मेदारी सौंपी।जिसे सुरजीत द्वारा प्राण पण से निभाया गया अतः ग्रामीणों का लगाव व प्रेम भी उसे प्राप्त हुआ जिसका इजहार उसने प्रस्तुत गीत में इन शब्दों द्वारा किया है-'जंजीरों से भी मजबूत हैं ये प्रेम के कच्चे धागे'।

इस निर्णय द्वारा फ़िल्मकार का दृष्टिकोण 'दंडात्मक' के बजाए 'सुधारात्मक' न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों को जागरूक करना था । परंतु लोग बाग तो महज मनोरंजन के दृष्टिकोण से ही  फिल्में देखते हैं किसी ओर से भी ऐसी पहल की मांग नहीं उठाई गई आज 43 वर्षों बाद भी लोग 'फांसी-फांसी' के नारों के साथ प्रदर्शन करते हैं और 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की ' की तर्ज़ पर नित नए-नए अपराधों की बाढ़ आती जाती है।

कुलक व्यवस्था :

हालांकि न तो सुरजीत को न ही गंगा दीन के परिवारीजनों को यह निर्णय पसंद आया था परंतु अदालत का आदेश था तो परिपालन तो करना ही पड़ा। विपरीत और विषम परिस्थितियों में सुरजीत ने कष्टों को सह कर भी गंगा दीन व उसके दिवंगत पुत्र राम दीन के परिवारीजनों की सतत सहायता करने के प्रयास जारी रखे ।

सुरजीत को यह भी एहसास हुआ कि जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बावजूद किस प्रकार व्यापारी/पूंजीपति वर्ग भोले-भाले किसानों की अज्ञानता का लाभ उठा कर उनके खेतों को गिरवी रखवा लेता था और फिर धोखे से अपने नाम रजिस्ट्री करवा कर फार्म हाउस बना कर गुलछर्रे उड़ाता था। यह कुलक वर्ग न केवल ज़मीनों बल्कि किसानों की बहुओं व बेटियों पर भी गलत निगाहें रखता था । रामदीन की बहन कमला (नाज़ ) को कुलक सूरज की तिकड़मों को धता बताते हुये सुरजीत ने उसके बचपन के प्रेमी शेखर से विवाह कराने में मदद दी । इसमें सुरजीत को सहयोग मिला फूलमती (मुमताज़ ) का जो अपने नाना के पास रह कर बच्चों का मनोरंजन करके आजीविका चलाती थी।

पाखंड व ढोंग का पर्दाफाश :

रामदीन की  अकाल मृत्यु के संबंध में सुरजीत को गाँव वालों से उसके द्वारा खरीदे नए खेतों में  एक वृक्ष  पर 'ज़िंदा चुड़ैल ' के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने उनका वहम  सदा के लिए समाप्त करने हेतु उसे काट डालने का निर्णय कर डाला। जब वह वहाँ पहुंचा तो पोंगा पंडित द्वारा प्रेरित कलाकार फूलमती को वहाँ पाया जिसने खुद सुरजीत को भूत कह कर संबोधित  किया था जिसके जवाब में उसने पूछा कि तो तुम्ही ज़िंदा चुड़ैल हो?

वह पोंगा पंडित भूत-चुड़ैल की शांति के नाम पर ग्रामीणों को ठगता था। सुरजीत द्वारा वह वृक्ष उखाड़ फेंकने से उसका धंधा ध्वस्त हो गया तथा उसे ग्रामीणों के तीव्र आक्रोश का सामना करना पड़ा था। ऐसे वक्त में सुरजीत ने ही उसकी जान बचाई थी जिसके बदले में वह कमला-शेखर की शादी कराने हेतु उस वक्त उसे पकड़ लाया था। 

शेखर और फूलमती को एक ठग ज्योतिषी से संपर्क करते दिखा कर फ़िल्मकार ने समाज में व्याप्त अज्ञान व अदूरदर्शिता को भी इंगित करके उससे बचने का संकेत किया है। लेकिन आज तो विभिन्न टी वी चेनलों के माध्यम से अंध विश्वास व पाखंड को और अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है। 'दुश्मन' के शिक्षाप्रद संदेश को मनोरंजन की आड़ में उपेक्षित कर दिया गया है। परिणामतः जनता का शोषण और उत्पीड़न और भी भयावह रूप में आज उपस्थित है। 

व्यापार जगत के बढ़ते राजनीतिक आधार का खेत और किसानी पर प्रभाव :

'दुश्मन' का निर्माण काल लगभग 1970 का होगा जबकि 1969 में 'सिंडीकेट' और 'इंडिकेट' के रूप में केंद्र के सत्तारूढ़ दल में विभाजन हो चुका था। 1967 के आम चुनावों में उत्तर भारत के प्रदेशों से कांग्रेस राज का सफाया हो चुका था। व्यापारी और पूंजीपति वर्ग 'समाजवादी नमूने के समाज' सिद्धान्त को धुंधला देना चाहता था। वह अपनी अवैध कमाई को गांवों में खेत खरीद कर और फार्म हाउसों में परिवर्तित करके वैध रूप से आय कर बचाने के उपाय कर रहा था। कुलक-सूरज और उसके साथियों का चाल-चरित्र इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिसने सुरजीत के प्रयासों से गाँव के लहलहाते खेतों में फसल काटने से पहले ही आग लगवा दी। क्योंकि सुरजीत  के प्रयासों से गाँव वालों को अपनी-अपनी  ज़मीन का मालिकाना हक वापिस शासन द्वारा मिल चुका था। गाँव का किसान अपने पैरों पर न खड़ा हो सके इसलिए उसकी फसल को फूँक कर कमर तोड़ डाली गई थी। 

ठीक ऐसा ही एक प्रसंग इससे पूर्व की 'सुधारात्मक दंड' वाली फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' में भी आया था । व्ही शांताराम द्वारा निर्देशित इस फिल्म में  जेलर के सद्प्रयासों  से कैदियों द्वारा बंजर ज़मीन को उपजाऊ बना कर तैयार फसलों को भी मंडी के शोषक व्यापारियों द्वारा जलवा दिया गया था।

आज़ादी के तुरंत बाद भी और 22-23 वर्षों बाद भी किसानों की समस्याएँ ज्यों की त्यों थीं और आज से 22-23 वर्ष पूर्व शुरू हुई उदरवाद/नव उदारवाद अर्थ व्यवस्था ने तो किसानों को आत्म-हत्या तक को मजबूर किया है। 'दुश्मन' में लापरवाही/नादानी में बने अपराधी सुरजीत को सुधारात्मक दंड ने एक समाज सुधारक के रूप में परिवर्तित कर दिया है । वह मालती द्वारा फूलमती की ज़िंदगी बचाने के प्रयास में सूरज द्वारा घिर जाने पर गोदाम का फाटक ट्रक से तोड़ कर वहाँ पहुंचता है और अपनी माँ समान भाभी -मालती की इज्ज़त पर हाथ डालने की कोशिश के लिए उसे समाप्त कर देना चाहता है तब मालती द्वारा उसे देवर जी संबोधित करके माफ कर दिया जाता है। इसी कारण अदालत द्वारा  बाकी सजा माफ करके उसे छोड़ देने पर वह अदालत से वहीं रहने की स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेता है जहां के ग्रामीण उसके लिए पलक-पांवड़े बिछा कर उसका स्वागत करते हैं। अनाथ हो चुकी फूलमती को अपना कर वह पुनः गाँव को खुश हाल बनाने के काम में जुट जाता है। 

जो 'दुश्मन' के रूप में आया था वही गाँव वालों का भरोसेमंद 'दोस्त' बन गया यही वजह 'दोस्ती दिवस ' पर 'दुश्मन ' देखने की थी।




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